आज रांची के सत्य गंगा आर्केड परिसर में सद्गुरु सदाफल देव जी महाराज की 138वीं जयंती भव्य श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाई गई। आयोजन की शुरुआत मंगल गान के साथ हुई, जिसमें श्रद्धालुओं ने गुरु का भावपूर्ण आवाहन किया। पूरा वातावरण "गुरु वंदना" की दिव्यता से सराबोर हो उठा।
भक्ति, ब्रह्मज्ञान और बलिदान की त्रिवेणी थे सद्गुरु सदाफल देव जी
सद्गुरु सदाफल देव जी महाराज का जन्म 1888 में भादो कृष्ण पक्ष की चतुर्थी, गुरुवार के दिन हुआ था। मात्र 11 वर्ष की उम्र से तपस्या की शुरुआत कर, 17 वर्षों तक उन्होंने निरंतर साधना की और 28 वर्ष की अवस्था में ईश्वर व ब्रह्मज्ञान की पूर्णता प्राप्त की। उन्होंने न केवल आत्म-साक्षात्कार किया, बल्कि समस्त ब्रह्मांडीय गुणों को भी अनुभव कर लिया। 35 महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना कर उन्होंने ज्ञान-विज्ञान को जन-जन तक पहुँचाया।
"योग योग सब कोई कहे, योग न जाना कोय। अर्द्ध धार उरध चले, योग कहावे सोय।।"
सद्गुरु जी ने योग के गूढ़ रहस्यों को सरल भाषा में उजागर किया। उनका प्रसिद्ध ग्रंथ "स्वर्वेद" एक ऐसा दिव्य ग्रंथ है जिसे उन्होंने अपने हृदय की चिंतामणि कहा, जिसमें उन्होंने ईश्वर की अनुभूति को शब्दों में ढाला:
"सत्य असत्य से अलग है, सो पर सत्य स्वरूप। अकथ अलौकिक तत्व है, अज अनादि वर रूप।
🇮🇳 क्रांतिकारी संन्यासी: आज़ादी की लड़ाई में भी निभाई अहम भूमिका 🇮🇳
सद्गुरु जी केवल आध्यात्मिक ही नहीं, बल्कि राष्ट्रभक्ति के प्रतीक भी थे। वर्ष 1920 में पंडित नेहरू के साथ मंच साझा कर उन्होंने क्रांतिकारी भाषण दिए और ‘विज्ञानानंद’ नाम से आज़ादी की अलख जगाई। इसके लिए उन्हें दो वर्ष का सश्रम कारावास भी भुगतना पड़ा, जहां उन्होंने अपने आध्यात्मिक प्रयोग जारी रखे।
"योग योग सब कोई कहे, योग न जाना कोय। अर्द्ध धार उरध चले, योग कहावे सोय।।"
सद्गुरु जी ने योग के गूढ़ रहस्यों को सरल भाषा में उजागर किया। उनका प्रसिद्ध ग्रंथ "स्वर्वेद" एक ऐसा दिव्य ग्रंथ है जिसे उन्होंने अपने हृदय की चिंतामणि कहा, जिसमें उन्होंने ईश्वर की अनुभूति को शब्दों में ढाला:
"सत्य असत्य से अलग है, सो पर सत्य स्वरूप। अकथ अलौकिक तत्व है, अज अनादि वर रूप।
🇮🇳 क्रांतिकारी संन्यासी: आज़ादी की लड़ाई में भी निभाई अहम भूमिका 🇮🇳
सद्गुरु जी केवल आध्यात्मिक ही नहीं, बल्कि राष्ट्रभक्ति के प्रतीक भी थे। वर्ष 1920 में पंडित नेहरू के साथ मंच साझा कर उन्होंने क्रांतिकारी भाषण दिए और ‘विज्ञानानंद’ नाम से आज़ादी की अलख जगाई। इसके लिए उन्हें दो वर्ष का सश्रम कारावास भी भुगतना पड़ा, जहां उन्होंने अपने आध्यात्मिक प्रयोग जारी रखे।