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जिंदगी की जंग को भी योद्धा की तरह लड़े ‘दिशोम गुरु’ शिबू सोरेन
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जिंदगी की जंग को भी योद्धा की तरह लड़े ‘दिशोम गुरु’ शिबू सोरेन

Shibu Soren : झारखंडी अस्मिता और आदिवासियों के हक के लिए आजीवन संघर्ष करने वाले शिबू सोरेन को खोकर आदिवासी समाज एक तरह से गुरुविहीन हो गया है. इसकी वजह यह है कि आदिवासी समाज के लिए शिबू सोरेन सबसे बड़े गुरु थे. उन्होंने आदिवासियों को सिखाया कि अपने हक को छोड़ने की गलती नहीं करनी है, बल्कि उसे प्राप्त करना है. उन्होंने झारखंड अलग राज्य का सपना देखा ताकि इस क्षेत्र और यहां के लोगों का विकास हो सके और उन्होंने अपने सपने को जनांदोलन के जरिए साकार करवाया, जब 15 नवंबर 2000 को झारखंड अलग राज्य का गठन हुआ.
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August 4, 2025 32 views 0 likes

 झारखंड के महानायक और तीन बार के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने जिंदगी की जंग को भी एक योद्धा की तरह लड़ा और अंतत: वीरगति को प्राप्त हुए. शिबू सोरेन 19 जून से अस्पताल में भर्ती थे और संघर्ष कर रहे थे, सोमवार 4 अगस्त की सुबह को उनका निधन हो गया. शिबू सोरेन आदिवासियों के सर्वमान्य नेता थे और उन्होंने अपना पूरा जीवन ही आदिवासी कल्याण के लिए लगाया. झारखंड अलग राज्य का संघर्ष उन्होंने किया और तब तक लड़े जबतक कि उनका यह सपना पूरा नहीं हुआ.

रामगढ़ के नेमरा गांव से शुरू हुई थी शिबू सोरेन की कहानी

शिबू सोरेन संताल आदिवासी हैं और इनका पैतृक निवास रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में है. इनके पिता सोबरन सोरेन पेशे से शिक्षक थे और इलाके में महाजनी प्रथा, सूदखोरी और शराबबंदी के खिलाफ आंदोलन चला रखा था. शिबू सोरेन का जन्म नेमरा में ही 11 जनवरी 1944 को हुआ था. जब वे महज 13 साल के थे तब उनके पिता सोबरन सोरेन की 1957 में हत्या कर दी गई थी. पिता की हत्या के बाद शिबू सोरेन के बाल मन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा और उन्होंने साहूकारों और महाजनों के खिलाफ संघर्ष शुरू कर दिया. टुंडी प्रखंड के पलमा से शिबू सोरेन ने महाजनों और सूदखोरों के खिलाफ अपना आंदोलन शुरू किया था. संताल समाज को जागरूक करने और लोगों को शिक्षित करने के लिए सोनोत संताल समाज का गठन किया. शिबू सोरेन ने आदिवासी समाज को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने और नशे से दूर रखने के लिए काफी प्रयास किए.

महाजनों से आदिवासियों की जमीन को मुक्त कराने के लिए किए अनोखे प्रयास

1970 के दशक में झारखंड में महाजनों का आतंक कायम था. वे आदिवासी किसानों को अपने ऋण के जाल में फंसा लेते थे और उनसे मनमाना सूद वसूलते थे. सूद ना दे पाने की स्थिति में वे आदिवासियों की जमीन पर कब्जा कर लेते थे. जमीन पर से हक खत्म हो जाने के बाद आदिवासी बदहाल हो जाते थे क्योंकि जमीन ही उनकी जीविका का साधन था. शिबू सोरेन के पिता की हत्या में भी इन महाजनों का ही हाथ माना जाता था, इसलिए शिबू सोरेन ने महाजनों के आतंक से मुक्ति दिलाने के लिए शिबू सोरेन ने उन जमीनों पर धान काटो अभियान चलाया, जिसे ऋण के बदले में महाजन कब्जाए बैठे थे. इस अभियान के दौरान आदिवासी महिलाएं जमीन से धान काट लेती थीं और धनकटनी के दौरान आदिवासी पुरुष तीर-धनुष लेकर सुरक्षा में तैनात रहते थे. इस तरह महाजनों को शिबू सोरेन ने टक्कर दी. इतना ही नहीं उन्होंने आदिवासियों को सामूहिक खेती और सामूहिक पाठशाला के लिए प्रेरित किया.

आदिवासियों को एकजुट करने के लिए किया गया झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन

शिबू सोरेन ने आदिवासी अधिकारों को सुरक्षित करने और उन्होंने शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए उन लोगों को एक मंच पर लाने का काम किया, जो एक ही तरह के कार्यों के लिए अलग-अलग संघर्ष कर रहे थे. प्रभात खबर के कार्यकारी संपादक रहे अनुज कुमार सिन्हा की पुस्तक ‘झारखंड आंदोलन का दस्तावेज : शोषण, संघर्ष और शहादत’ के अनुसार एके राय, विनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन अलग-अलग बैनर के तले आंदोलन चला रहे थे. 4 फरवरी, 1972 को तीनों एक साथ बैठे और सोनोत संताल समाज और शिवाजी समाज का विलय कर ‘झारखंड मुक्ति मोर्चा’ नामक नया संगठन बनाने का निर्णय हुआ. इसके बाद झारखंड मुक्ति मोर्चा (Jharkhand Mukti Marcha- JMM) का गठन हुआ. झामुमो के गठन के साथ ही विनोद बिहारी महतो इसके पहले अध्यक्ष बने थे और शिबू सोरेन को महासचिव बनाया गया था.


1977 में राजनीति की ओर किया रुख

झारखंड मुक्ति मोर्चा के गठन के बाद उन्होंने पहली बार 1977 में लोकसभा और टुंडी विधानसभा क्षेत्र का चुनाव लड़ा, लेकिन दोनों ही चुनाव में उन्हें हार मिली. उसके बाद गुरुजी ने संताल परगना का रुख किया और 1980 में दुमका लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर जेएमएम के पहले सांसद बने.वहीं जेएमएम की एक बड़ी उपलब्धि यह रही कि 1980 के विधानसभा चुनाव में संताल परगना के 18 में से 9 सीटों पर जेएमएम को जीत मिली. उस वक्त झारखंड बिहार का हिस्सा था और जेएमएम की जीत से बिहार की राजनीति में बड़ा बदलाव हुआ.
झारखंड अलग राज्य के आंदोलन को बनाया जनांदोलन

झारखंड अलग राज्य की मांग काफी पुरानी थी, लेकिन राजनीति में सक्रिय होने के बाद शिबू सोरेन ने इस आंदोलन को जनता का आंदोलन बना दिया और उनके आंदोलन की वजह से ही अलग राज्य का गठन हुआ, जो उनका सपना था. 1980 में जब वे जेएमएम के पहले सांसद बनकर संसद पहुंचे तो उन्होंने वहां आदिवासियों के मुद्दों को उठाना शुरू किया. आदिवासियों की संस्कृति, भाषा, जल-जंगल-जमीन पर उनके अधिकारों की बात की और अलग राज्य के आंदोलन के अलग दिशा दिया. उन्होंने अपने आंदोलन से सरकार पर इतना दबाव बनाया कि 15 नवंबर 2000 को झारखंड अलग राज्य का गठन हुआ. इस आंदोलन के लिए शिबू सोरेन ने व्यापक जनसमर्थन तैयार किया था, जो उनकी बहुत बड़ी उपलब्धि थी.
झारखंड के 3 बार मुख्यमंत्री बने शिबू सोरेन

15 नवंबर, 2000 को बिहार से अलग करके झारखंड अलग राज्य बना. इस राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी थे, लेकिन गुरुजी ने इस राज्य की बागडोर 3 बार संभाली. शिबू सोरेन ने झारखंड के तीसरे मुख्यमंत्री के रूप में 2005 में शपथ ली, लेकिन वे महज 10 दिन के लिए सीएम बने. इनका कार्यकाल 2 मार्च, 2005 से लेकर 11 मार्च, 2005 तक रहा. इसके बाद दूसरी बार वे 2008 में मुख्यमंत्री बने. इस दौरान इनका कार्यकाल 27 अगस्त, 2008 से 12 जनवरी, 2009 तक रहा. वहीं, तीसरी बार वर्ष 2009 में सीएम बने. इस दौरान इनका कार्यकाल 30 दिसंबर, 2009 से 31 मई, 2010 तक रहा. यह सरकार 5 महीने ही चली.
आदिवासियों के दिशोम गुरु शिबू सोरेन

शिबू सोरेन को आदिवासी समाज दिशोम गुरु कहता है. दिशोम संताली भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है राह दिखाने वाला या पथ प्रदर्शक. इसी वजह से शिबू सोरेन को दिशोम गुरु कहा जाता है, जो उनका सबसे बड़ा नेता या गुरु है. शिबू सोरेन ने आदिवासियों के हक और अधिकार के लिए आजीवन संघर्ष किया और कई बार जेल भी गए. उन्होंने आदिवासी समाज को जगाने का काम किया और उनके गुरु बने.

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